एक कहानी कृषक की कहता है भारतवर्ष 
कभी बाढ़ कभी सुखा रोता है भारतवर्ष|
सच क्या है क्या झूठ 
पूछता है  भारतवर्ष 
कभी पानी मांगते खेत 
कभी पानी में सड़ते  खेत 
कोसता है भारतवर्ष|
धुप हो या हो छाँव
सर्दी हो या गर्मी 
अथक मेहनत की तस्वीर
दिखाता है भारतवर्ष |
फसल अच्छी हुई 
तो क्षण भर को हर्षाता भारतवर्ष|
पर फिर ऋणों के बोझ में दब
 झुक जाता भारतवर्ष |
देखो, वो जाता कृषक 
वो है मेरी जान 
स्वेद उसकी, है मेरी पहचान,
इतराता है भारतवर्ष|
पर फिर उसकी 
सुखी हड्डियों के 
टूटते ढाँचे को देख 
शर्माता भारतवर्ष|
अमीरों को खिलाता कृषक 
उसके बागों को सजाता कृषक 
उसकी खुशफहमियों की
 नींव बनता कृषक
और खुद को हरदम बहलाता कृषक 
बताता है भारतवर्ष|
खुद भूखा तड़पता कृषक 
पुत्र हेतु दूध मांगता कृषक 
हर दुसरे रोज भूखा सो जाता कृषक 
अपनी किस्मत को कोसता कराहता कृषक 
कैसे जी रह वो 
छुपता है भारतवर्ष|
दो हाथ धोती में 
अपना तन छुपाता कृषक 
अर्धनग्न नयी तस्वीर 
ढूंढता सजाता कृषक 
खुद के दर्द को 
खेतों में दफनाता कृषक|
पर अपने अस्थि-वज्र से 
रोज सवेरे बनाता है वो भारतवर्ष |
यही है मेरी अमर कहानी 
बेशर्म हो सुनाता भारतवर्ष||
it's heart touching poem.....
ReplyDeleteThanks bro. I have just been trying to express the truth.
DeleteNicely written
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